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गुरुवार, 18 मार्च 2010

बुजुर्गों की रोशनी की किरण श्रीमती किरण चोपड़ा



अगस्त, 1958 में पंजाब के लुधियाना शहर में पैदा हुईं श्रीमती किरण चोपड़ा, नि:स्वार्थ भाव से बुजुर्गों की सेवा में समर्पित हैं। किरण जी बचपन से ही बड़ों की सेवा, उनके आदर्शों एवं आशीर्वाद के सहारे चलकर, आज समाज का आईना बन चुकीं हैं। जिनकी उंगलियों के सहारे बच्चे चलना सीखते हैं, जिनके कंधों पर बैठकर देश-दुनिया को देखते हैं। वही बच्चे जब ज़वान होकर, अपने पांव पर खड़े हो जाते हैं और अपने बुजुर्ग मां-बाप की भावनाओं की अनदेखी करते हुए, उनसे आंखे फेर लेते हैं। ऐसे में असहाय हो चुके बुजुर्गों को रोशनी की किरण दिखा रही हैं- श्रीमती किरण चोपड़ा।  पंजाब यूनिवर्सिटी से राजनीति शास्त्र से एम.ए. करने के बाद, घर-परिवार की जि़म्मेदारी संभालते हुए भी किरण जी 'वरिष्ठï नागरिक केसरी क्लब' की बतौर संचालिका एवं डायरेक्टर पंजाब केसरी दिल्ली में कार्यरत हैं। अभिनय और वक्ता में गोल्डमेडलिस्ट श्रीमती किरण चोपड़ा, बतौर संस्थापिका 'वृद्ध केसरी रोमेश चन्द्र केसरी ट्रस्ट' एवं सामाजिक न्याय आधिकारिता की सदस्या के रूप में भी कार्यरत हैं। 


प्रस्तुत है, श्रीमती किरण चोपड़ा से बातचीत के कुछ अंश... 


इंटरव्यू के पहले, मैंने आपका बायोडाटा देखा, दिलचस्प बात यह है कि आपने राजनीति शास्त्र में मास्टर की डिग्री ली हैं, राजनीति शास्त्र में डिग्री लेने के बाद भी सामाजिक सेवा में रूचि?

मैं मध्यम परिवार में जन्मी-पली, मेरी मां से मिले संस्कार और सासु मां से मिले आदर्श आज भी मेरे साथ हैं। बड़ों की सेवा करना, हमें बचपन से ही पारिवारिक संस्कार में मिला है। मेरी शादी भी ऐसे संस्कारों वाले परिवार में हुई, जहां तीन पीढिय़ां 'वन किचिन फैमिली'  में बड़े प्यार से रहती थीं। ससुर जी को अपने पिता की सेवा करते और उनके आगे नतमस्तक होते देखा। अपने पति को अपने दादा, अपने पिता की सेवा करते और सासु मां को पूरे परिवार के प्रति फर्ज निभाते देखा है। 
एम.ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद घर-परिवार की जि़म्मेदारी ज्यादा बढ़ गई। मैंने अपने पैरेन्ट्स और ससुराल वालों के इच्छा के अनुसार काम किया। इस बीच मैंने देखा कि बुजुर्ग के बीमार होने पर यह कहा जाता है कि इसने तो अपना जीवन जी लिया, एक दो या पांच साल की जि़न्दगी बची होगी, शांति से कट जाने दो। उनकी तकलीफों को बुढ़ापे की बीमारी बताकर उन्हें अनसुना और अनदेखी कर दिया जाता है। यह देखकर मुझे काफी दु:ख होता था कि एक भेदभाव रवैया बच्चों और बुजुर्गों के प्रति अपनाया जाता है। उस समय मुझे लगा कि केवल मैं बुजुर्गों के लिए कुछ कर पायी तो मेरा जीवन सफल हो जायेगा। इसी सपने को पूरा करने के लिए मैंने 'वरिष्ठï नागरिक केसरी क्लब' की सहायता से बुजुर्गों की सेवा करनी शुरू की। 
"वरिष्ठ नागरिक  केसरी क्लब" का गठन कब हुआ?
आदरणीय लाला जगत नारायण जी, रमेश जी का सपना और अश्विनी जी की प्रेरणा से मैंने अपने दिल की बात सुनी और अक्टूबर, 2005 को 'वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब' की स्थापना की। मैंने यह संकल्प लिया कि जिन लोगों ने अपना सारा जीवन घर-परिवार और समाज को दिशा देने, खुशहाल बनाने में लगा दिया, वे बुढ़ापे में हताश-निराश, असहाय और अकेले न रह जाये, उन्हें इस क्लब के जरिये जीना-हंसना सिखाया। उनके अंदर आत्मविश्वास और हौंसला बढ़ाया। उनमें इस भावना का संचार पैदा किया, अब वही कहते हैं कि हम किसी से कम नहीं। बुजुर्गों के लिए समर्पित भाव से यह एक सार्थक अभियान देखते ही देखते एक देश ही नहीं, विदेशों में एक लहर बन गया है। इस अभियान में आज हजारों की संख्या में हर तरह के सदस्य जुड़े हैं। 
'संगठन' के बजाय 'क्लब' नाम रखने का उद्देश्य?
हमारे देश में तमाम एनजीओ काम कर रहीं हैं, जिनमें से कुछ तो सही काम कर रही हैं, बाकी सिर्फ नाम के हैं। क्लब का उद्देश्य, बुढ़ापे जैसे एक मुद्दे के प्रति लोगों में सार्थक मानसिकता तैयार करना है। बुजुर्ग अपने अकेलेपन को मिटाने और अपना अच्छा समय बिताने के लिए यहां आते हैं, क्योंकि यह एक क्लब है। हम समय-समय पर लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रयास करते रहते हैं, जैसे मनोरंजन, कानूनी सहायता तथा स्वास्थ्य जांच शिविर का आयोजन करते हैं। हमारा मिशन सबको वृद्धाश्रम पहुंचाना नहीं, बल्कि अपने ही बच्चों के साथ जोडऩा है। वृद्धाश्रम रोटी, कपड़ा और मकान तो दे सकते हैं, लेकिन वह प्यार और एहसास नहीं, जो आपको अपने और आप उनको दे सकते हैं। देश में कई वृद्धाश्रम खुले हुए हैं, लेकिन वृद्धाश्रम सिर्फ उन लोगों के लिए हैं, जिनके आगे पीछे कोई न हो। जैसे कि कंझावला में ओमप्रकाश अग्रवाल ने त्रिवेणी वृद्धाश्रम खोला है, जहां बिल्कुल बेसहारा को ही भेजते हैं। वह नि:स्वार्थ सेवा कर रहे हैं।
क्लब को कोई सरकारी सहायता मिली हो?
अभी तक कोई सहायता नहीं मिली है। हमने क्लब का कार्य अपने ऑफिस में 7 सदस्यों के साथ शुरू किया था, जिनमें होम मिनिस्ट्री, एल.आई.सी., रेलवे के अतिरिक्त दो बिज़नेस मैन और तीन लेडीज थीं, पर इनकी संख्या बढ़कर 10 हजार से ऊपर हो गई है। सबको मालूम है कि 'पंजाब केसरी' हर आम और खास वर्ग का अखबार है। हमें गर्व है कि इसमें किसी की भावनाओं को स्थान मिलता है। उसी तरह हमारे क्लब के साथ भी खास और आम लोग जुड़े हैं। क्लब के साथ रिटायर्ड ऑफिसर, बिज़नेस मैन और बुद्धिजीवी वर्ग तो जुड़ ही रहे हैं, पर ज़रूरतमंद लोग भी आ रहे हैं। इस क्लब को मेरी सास श्रीमती सुदर्शन चोपड़ा का आर्शीवाद है और पूरा-पूरा सहयोग है। मेरे पति अश्विनी कुमार जी और देवर अरविन्द चोपड़ा समय-समय पर मेरी फाइनेंशियल सहायता करते हैं और सलाह भी देते हैं। आज लोगों के सहयोग से ही इस क्लब की शाखाएं दूसरे प्रदेशों में खुलती जा रही हैं।
क्लब की शुरुआत में किस तरह की चुनौनियों का सामना करना पड़ा? 
वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब के गठन के समय बहुत से लोगों ने यह कहते हुए हतोत्साहित किया था कि 'घर में एक बुजुर्ग की देखभाल करना मुश्किल होता है, तो फिर तुम कैसे निभा पाओगी इतनी बड़ी जि़म्मेदारी।' कई सहेलियों ने भी सलाह देते हुए कहा था कि 'बच्चों या कन्याओं से संबन्धित कोई काम करो।' बच्चों के लिए कुछ करने से खुशियां मिलती हैं। उनकी मासूम शरारतें उदास चेहरे पर भी खुशी ला देती हैं और बच्चे आने वाले कल में तुम्हारी ताकत और नवयुवतियों के लिए काम करने से पुण्य मिलेगा। लेकिन मैंने देखा कि बच्चो, नवयुवतियों की देखभाल व संरक्षण के लिए तो पूरा परिवार, रिश्तेदार होते हैं, जबकि ढलते जीवन के उस मोड़ पर बुजुर्गों को किसी की सहानुभूति, हमदर्दी और सहारे की सख्त ज़रूरत होती है। उस समय मुझे लगा कि अगर मैं बुजुर्गों के लिए कुछ कर पायी तो मेरा जीवन सफल हो जाएगा। 
जिस समय आपके दिन चुनौतीपूर्ण थे, तो उन दिनों आप क्या सोचती थीं?
आप कोई भी रोल निभाओगे, उसमें परेशानी ज़रूर होती है। जब लाला जी शहीद हुए तो मैं पहली बार मां बनने वाली थी। मेरा घर से बाहर निकलना बंद हो गया था। हर समय आतंकवाद का साया सिर पर मंडराता रहता था। मैं और मेरी ननद नीता एक कमरे में डरकर दुबके रहते थे। रमेश जी हमेशा प्यार से मुझे समझाते थे कि जि़न्दगी में डरकर नहीं रहना, जो विधि का विधान है, होकर ही रहेगा। तुम एक निडर परिवार की बहू हो और तुम्हें बहादुर बच्चा पैदा करना है। जब रमेश जी शहीद हुए, मानो हमारे परिवार पर पहाड़ टूट पड़ा। वह समय हमारा एक तरह 'हाउस अरैस्ट' था। अश्विनी जी घर से ही ऑफिस चला रहे थे। बेटे को तीसरी कक्षा तक घर में ही पढ़ाना पड़ा। बहुत मुश्किल लगता था कि बच्चा खुले वातावरण में खेलकर पल-बढ़ नहीं रहा था। आज भी हम सिक्युरिटी के साए में जीते हैं, क्योंकि मेरे पति अश्विनी जी एक निडर, निर्भीक पत्रकार हैं, जिनकी कलम न डरती है, न झुकती है और न ही किसी पार्टी के साथ है। हमेशा से हमारे ने परिवार, देश और आम जनता के हित में कार्य किया है। 
क्लब की विशेषता?
क्लब का हर सदस्य हमारे लिए महत्वपूर्ण है। उनके लिए हमारा यह संदेश होता है कि 'हम किसी से कम नहीं'। हर मंगलवार को बुजुर्ग एक होकर आपस में ही अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ लेते हैं। सब एक-दूसरे का सुख-दुख बांटकर अपने आपको समाज को मज़बूत मानने लगे हैं। वे अपने अनुभव से समाज को कुछ देना चाहते हैं, जो हर सुख से वंचित है तथा समाज और बच्चों से काफी उम्मीद रखते हैं। 
घर-परिवार व बच्चों के साथ-साथ आप इन जि़म्मेदारियों को कैसे मैनेज करती हैं? 
सच कहूं तो कभी-कभी खाने के लिए टाईम नहीं मिल पाता है। कई जि़म्मेदारियां हैं, लेकिन धीरज और धैर्य से सब कुछ संभव है। यह एक ऐसी डगर है, जो बुजुर्गों के आर्शीवाद से, उनकी दुआओं से रास्ता तय करने का साहस कर रही हूं। घर में एक बुजुर्ग को खुश करना, मुश्किल होता है, लेकिन यहां तो करीब 10 हजार से अधिक सदस्य हैं, जिनके हृदय बच्चों से भी ज्यादा कोमल हैं, जिनके लिए हमारे क्लब के कार्यकर्ताओं का पूरा सहयोग है। 
ऐसा लम्हा, जिसे आप याद करना चाहेंगी?
जि़न्दगी का हर लम्हा याद आता है। अच्छे लम्हें कभी भूलना नहीं चाहती हूं। शादी के समय मैं पढ़ रही थी। हमारे और अश्विनी जी के बीच का नोक-झोंक वाला समय काफी अच्छा लगता है, वे दिन बहुत याद आते हैं। घर में बहुत लोग थे और सभी लोग लाला जी की सेवा करते थे। मैं उनकी पौत्र वधू थी, यह उनका मेरे प्रति प्यार था कि वह सुबह की पहली चाय और शाम पांच बजे चाय-पकौड़े मेरे हाथ से लेना पसंद करते थे। 
आप अपनी उपलब्धियों के बारे में क्या कहना चाहेंगी?
मेरी उपलब्धियां तो बुजुर्गों के चेहरों पर मुस्कान लाने के रूप में मेरे और आपके सामने हैं। बहुत अच्छा लगता है कि हमारे क्लब से जुडऩे के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। मैंने जब इस मिशन की शुरुआत की थी तो सोचा था कि यह धीरे-धीरे आगे बढ़ेगा। उस समय मेरे बच्चे भी छोटे थे। इसके अलावा आतंक का साया भी हमारे परिवार के ऊपर था। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी। यह मिशन तेज़ी से आगे बढ़ता जा रहा है। मैं हमेशा कहती हूं कि यह मिशन मैं से नहीं हम से है। समर्पित और अच्छे लोग हमारे साथ होते हैं, तो हमारी हिम्मत और हौंसला और बढ़ता ही है। 
आपको समाज सेवा का इतना लंबा अनुभव है, पीछे मुडकर देखने पर पूरी जि़न्दगी के दौरान कौन सी ऐसी चीज़ है, जो आपको लगता है कि नहीं करनी चाहिए?
मेरे हिसाब से अब तक कोई भी ऐसा काम नहीं किया, क्योंकि कुछ लोग ऐसे हैं, जो कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। मैंने अपने जीवन में दिल की बात सुनी है। किसी बात का दुख नहीं है। 
ईश्वर में आस्था?
मैं शिव जी की पूजा करती हूं। शिव की पूजा करते-करते मैंने अश्विनी जी को पाया है। मुझे गर्व है कि वे मुझे प्यार भी करते हैं और सम्मान भी देते हैं। 
आप अपनी जगह किसी और से बदलना पसंद करेंगी?
बिल्कुल नहीं, मैं पूरी तरह से इन बड़ों की सेवा में समर्पित हूं। इस सेवा कार्य को करने से मुझे बेहद शांति मिलती है। मुझे लगता है कि मैं इसी काम के लिए पैदा हुई हूं। 
हमारे समाज में विशेषकर युवाओं की सोच और परंपराओं में जो परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं, उसके लिए आप जि़म्मेदार किसे मानती हैं?
आजकल टीवी सीरियल और फिल्मों में जो कुछ देखने को मिल रहा है, उसका असर युवाओं पर ज्यादा पड़ा है। लोगों के लिए अच्छी फिल्में और प्रोग्राम्स बनाये जाये, इसके लिए यह ज़रूरी है कि जो हमारे परम्पराएं, संस्कृति और नैतिकता हैं, उसे व्यवहार में लाया जाये। 
आपको फिल्में देखने का शौक है?
बचपन और कॉलेज लाईफ में बहुत फिल्में देखी हैं। अक्सर हम और अश्विनी जी साथ में फिल्में देखने जाये करते थे। एक बार मैं और अश्विनी जी फिल्म देखने चले गये। काफी रात हो गई। घर आते ही लाला जी ने एक दम रौबीली आवाज़ में कहा कि मिन्ना, आ गया वोटी नूं लैके, ऐनी रात नूं। हमारे दोनों के पसीने छूट गये, फिर उन्होंने उसी रौब से कहा, ठीक है - अगे तो ऐनी लेट वोटी नूं लैके नहीं जाना और किरण सवेरे मैनूं चाय टाइम नाल दे दईं। वे इतने सावधान थे कि न कहते हुए भी सब कुछ हमें समझा दिया।
जो महिलाएं समाज सेवा में आना चाहती हैं, किरण चोपड़ा की राय क्या होगी?
पारिवारिक मर्यादाओं में रहकर हर काम को दिल से करें। सच्ची भावना से करें। महिलाओं के अधिकार के लिए कई कानून दिये गये हैं। अगर वे उन अधिकारों का सदुपयोग करें तो उनके करियर और समाज दोनों के लिए बेहतर साबित होगा। 
बुजुर्गों की उम्मीद पर लिखी गई किताब 'आशीर्वाद' की विशेषता ...
आशीर्वाद, बुजुर्गों के जीवन की सच्ची और कड़वी हकीकत को बयां करती है। यह पुस्तक उन लोगों को समर्पित है, जो उम्र के उस पड़ाव पर अकेले रह गए हैं, जहां उन्हें अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए किसी के साथ की सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है। यह पुस्तक उन बच्चों को भी समर्पित है, जो अपना कर्तव्य अपने बुजुर्ग मां-बाप के प्रति बखूबी निभा रहे हैं। 
भविष्य में लोगों को आपसे क्या उम्मीद रखनी चाहिए?
आज जिन बुजुर्ग मां-बाप को लगता है कि वे असहाय और अकेले हैं, उन्हें सम्मान और खुशी देने के लिए हम तत्पर हैं। 'वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब' उनमें आत्मविश्वास, मज़बूती और हौंसला हमेशा पैदा करता रहेगा।


श्रीमती किरण चोपड़ा
जन्म : अगस्त, 1958
पति : श्री अश्विनी कुमार (संपादक - 'पंजाब केसरी')
पिता : विष्णू दत्त त्रिखा
माता : स्व. पूर्मिणा देवी
शिक्षा : एम.ए. (राजनीति शास्त्र)
स्थायी निवास : 34, लोधी स्टेट। 




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