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गुरुवार, 18 मार्च 2010

असहाय बच्चों की सेवा के लिए समर्पित 'मीनू दीदी'


 "हौंसला बुलंद हो तो रास्ते खुद व खुद बन जाते हैं"

"एक मोमबत्ती जिस तरह एक कमरे में पर्याप्त रोशनी दे सकती है, उसी तरह हर बच्चा अपने घर की मोमबत्ती है। हर बच्चे का घर एक कमरा है और उसमें एक जलती हुई मोमबत्ती उसका पर्याप्त रोशनी है। यहां हमारे पास रहकर आप किसी चौराहे की रोशनी न बनो या फिर किसी हाल की लालटेन। बड़े हालों में, बड़े चौराहों पर लालटेन की रोशनी बहुत कम होती है, लेकिन यहीं लालटेन की रोशनी एक कमरे के लिए पर्याप्त होती है। इसी तरह आप अपने घर की रोशनी बनों" यह कहना है सुश्री मृड़ाल कांत ऊर्फ 'मीनू दीदी' का। 

7 फरवरी, 1958 को लखनऊ में पैदा हुईं सुश्री मृडाल कांत ऊर्फ 'मीनू दीदी' आज नि:स्वार्थ पोलियो पीडि़त बच्चों की सेवा कर रही हैं। जनकपुरी में निवास कर रहीं मीनू का बचपन से गरीब और असहाय लोगों की सेवा करना उनका शौक रहा है। माता की ममता और पिता के प्यार ने उन्हें मृडालिनी प्रियदर्शीनी नाम दिया और जब उन्होंने रेडियों में उदघोषक के रूप में कार्य करना शुरू किया तो लोगों ने मीनू नाम रखा। घर-परिवार और बच्चों ने 'मीनू दीदी' के नाम से पुकारा और आज यही नाम मीनू को एक अलग पहचान दिया है।
14 साल की उम्र में पिता के देहांत होने के बाद मीनू को अपनी दो छोटी बहनों, एक भाई और मम्मी की सेवा मां बनकर की। उस समय मीनू 9वीं कक्षा में पढ़ रही थीं। पढ़ाई के साथ-साथ घर की पूरी जिम्मेदारी निभानी पड़ती थी। दिल्ली यूनिवर्सिटी से बीए और एमबीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने जेएनयू से रशियन भाषा में इंटर्नशिप कोर्स किया। कॉलेज पढ़ाई के दौरान मीनू के जीवन में एक घटना घटी, जिससे वह प्रेरित होकर अपने आपको असहाय बच्चों की सेवा कार्य के लिए समर्पित कर दिया।
मीनू को बच्चों की सेवा करने के लिए प्रेरणास्रोत बनी उन दिनों की बातें आज भी याद है, जिसे सुनकर उन्होंने तीन दिनों तक बेचैनी भरी रातें गुजारी थीं। बकौल मीनू, ''उन दिनों की बात है, जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी। कॉलोनी का गेटकीपर काफी दु:खी होकर अपने छोटी बच्ची को गोंद में उठाये खड़ा था। मैंने उसे देखकर बच्ची के बारे में पूछा और कहा कि इस बच्ची को इलाज के लिए किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाते? तो गेटकीपर ने जवाब दिया कि 'इसे पोलियो की बीमारी है, शुक्र करो मैं इसे जिंदा रखा हूं।' उसकी यह बात मुझे झकझोर कर रख दिया। मुझे तीन दिनों तक नींद नहीं आयी। मेरे मन में यही बात आती रही कि इस समाज में मैं रहती हूं, तो मेरा भी समाज के प्रति फर्ज बनता है। मैंने यह फैसला किया कि अब हमें भी असहाय बच्चों की सेवा करनी है। शुरू में मैंने पोलियो बीमारी की जानकारी के लिए दिल्ली में चल रही विकलांग संस्थाओं में जाकर जानकारी ली। कॉलेज में बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ किसी तरह समय निकालकर इन संस्थाओं में जाकर पीडि़तों की सहायता करती थी। बाद में स्वयं कॉलोनी के समीप एक मंदीर के सामने पेड़ के नीचे 11 पोलियो पीडि़त बच्चों सेवा कार्य शुरू कर यह का शुरू किया।'
इस तरह से मीनू दीदी के करियर के साथ-साथ नयी जिंदगी की शुरूआत हुई। सन् 1988 से करीब दस साल तक उन्होंने काफी प्रयास किया। बच्चों की सेवा के लिए शुरू में उन्होंने सामाजिक संस्थाओं में जाकर काम किया। जब इससे उन्हें शांति नहीं मिली तो उन्होंने घूम-घूम कर सर्वे का काम किया। दिल्ली की स्लम गलियों में जब वह जाया करती थी तो उन्हें परिवार की तरफ से उन्हें यह सुनने को मिलता था कि 'दीदी आप ऐसा काम ना करो, आपको कभी कोई बीमारी हो सकती है।' इस बात से बेपरवाह मीनू ने अपना सेवाकार्य जारी रखा। ईश्वर में अटूट आस्था रखने वाली मीनू अपने जीवन के आदर्श स्वामी विवेकानंद और साईं बाबा के विचार को मानती हैं। वे बताती हैं कि साईं बाबा कहते हैं कि 'किसी की बुराई मत करो, सभी परिस्थियों में घिरे होते हैं। किसी को अपने को छोटा मत समझो। असहाय लोगों की सेवा करो, तुम नहीं करोगे तो और कोई दूसरा करेगा।' मीनू दीदी का मनना है कि देवी-देवताओं की पूजा करने के बजाए, डेढ़ दो सौ करोड़ लोगों की सेवा करनी चाहिए। जरूरी नहीं है कि साधु संयासी बनकर सेवा करें।
सन् 1988 में दिल्ली के जनकपुरी स्थित पोसंगी गांव के एक मंदीर में 11 पोलियो पीडि़त बच्चों की देखरेख का जिम्मा उठाकर मीनू ने अपने नि:स्वार्थ सेवा कार्य की शुरुआत की। इस कार्य के लिए उन्हें बच्चों के माता पिता और गांव के मुखिया को काफी समझाना बुझाना पड़ा। इतना ही नहीं कुछ लोगों ने मीनू के इस कार्य को दिखावा बताया। ...लेकिन मीनू का साहस और अटूट लगन को देखकर कॉलोनी के लोगों ने मदद के हाथ भी बढ़ाया। बच्चों की संख्या बढऩे पर उनकी सेवा के लिए मीनू ने 1998 से द्वारका स्थित बस्ती विकास केंद्र, सेक्टर-3 में उन्होंने 'प्रेरणा निकेतन संघ' की स्थापना किया। बकौल मीनू, जनकपुरी के निगम पार्षद संजय पुरी के प्रयास से उन्हें द्वारका में एमसीडी ने बारात घर बच्चों की सेवा के लिए मिला। विधायक जगदीश मुखी और अंजलि अग्रवाल का भी पूरा सहयोग रहा है। इसके अलावा पोलियो पीडि़त बच्चों की मुफ्त सर्जरी करने वाले सफदर जंग हास्पिटल के हेड ऑफ डिपार्टमेंट, आर्थोपेडिक डॉ. विदूर कुमार जैन का योगदान महत्वपूर्ण रहा है, जो आज भी नि:शुल्क सेवा कार्य करते आये हैं। स्वंय सेवी संस्थाओं में ध्यान फाउंडेसन का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है, जिनकी सहयोग से ही यह सेवाकार्य चल रहा है।' हालांकि संस्था की स्थाई जमीन न होने की वजह से अब तक उन्हें कोई सरकारी सहायता नहीं मिली। लेकिन मीनू के इस काम की सराहना करते हुए यह कहा गया कि 'हमारी मीनू दीदी का यह काम हैं, इसका हाथ हमें मजबूत करना है।' इस बात को याद कर मीनू के आंख में आंसू आ जाती है। वह कहती हैं कि 'प्रभु की कृपा है कि हमें किसी तरह की परेशानी नहीं है।'
मीनू ने बच्चों की सेवाकार्य के पीछे विवाह जैसी बात को भी पीछे छोड़ दिया। हालांकि कॉलेज लाईफ के दौरान उनके शादी के प्रस्ताव भी आये, लेकिन उन्होंने बच्चों को अपना परिवार समझकर शादी जैसी बात को हमेशा के लिए मन से निकाल दिया। वे स्वयं कहती हैं कि 'यही बच्चे हमारे हाथ पैर हैं, इनकी सेवा करना हमारा कर्तव्य है।' घर-परिवार और स्वयं अपनी जरूर पूरी करने के लिए ऑल इंडिया रेडियो में कैजुअल आर्टिस्ट एवं एलाउंसर के रूप में कई सालों तक नौकरी की। इस नौकरी से अपनी जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ पोलियो पीडि़त बच्चों के लिए कई कार्यक्रम किये। उन्होंने अपने पिता द्वारा जमा किये गये करीब दो लाख रुपये बच्चों की सेवा में लगा दिया। बच्चों को स्कूल ले जाने के लिये बस खरीदा। आज दिल्ली यूनिवर्सिटी में कैरियर काउंसलर के पद पर कार्यरत हैं। दिन के समय नौकरी और दूसरे कामों को पूरा करके रात को बच्चों की देखभाल करती हूं। जिस दिन छुट्टी होती है, उस दिन पूरा समय इन्हीं बच्चों के साथ रहती हैं। बच्चों की देखभाल के बारे में पूछे जाने पर वे बताती हैं कि बच्चों के लिए हमारा संदेश होता है कि 'बच्चों यह तुम्हारा घर है, इसे सुरक्षित और साफ सुथरा रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है।' यही वजह है कि आज तक उन्हें बच्चों से भी किसी तरह की परेशानी नहीं उठानी पड़ी।
प्रेरणा निकेतन की सफलता को लेकर कहती मीनू कहती हैं कि यहां जो भी बच्चा इलाज के लिए आता है, जब वह स्वस्थ्य होकर अपने घर जाता है तो वहीं सबसे बड़ी उपलब्धि बनती है। इन बच्चों के लिए मीनू दीदी का संदेश होता है कि "एक मोमबत्ती जिस तरह एक कमरे में पर्याप्त रोशनी दे सकती है, उसी तरह हर बच्चा अपने घर की मोमबत्ती है। हर बच्चे का घर एक कमरा है और उसमें एक जलती हुई मोमबत्ती उसका पर्याप्त रोशनी है। यहां हमारे पास रहकर आप किसी चौराहे की रोशनी न बनो या फिर किसी हाल की लालटेन। बड़े हालों में, बड़े चौराहों पर लालटेन की रोशनी बहुत कम होती है, लेकिन यहीं लालटेन की रोशनी एक कमरे के लिए पर्याप्त होती है। इसी तरह आप अपने घर की रोशनी बनों"
भविष्य की योजनाओं को लेकर गंभीर मुद्रा में होकर मीनू दीदी कहती हैं कि 'मैं अनाथ बच्चों और बुजुर्गों की सेवा करना चाहती हूं, जिन्हें सबसे अधिक प्यार की जरूरत होती है। बच्चों को बड़े लोगों की जरूरत होती है, उन्हें संभालने की जरूर होती है। ...और बुजुर्गों को बच्चों का प्यार मिले, क्योंकि वे मजबूर होते हैं। 

व्यक्तिगत परिचय
जन्म : 7 फरवरी, 1958 (लखनऊ)
माता : स्व. श्रीमती अनिल सक्सेना
पिता : स्व. श्री रामबिहारी लाल सक्सेना
भाई : श्री राकेश कुमार सक्सेना
बहन : रजनी सक्सेना, स्व. अनीता सक्सेना
निवास स्थान : ए-5, बी-121, जनकपुरी, दिल्ली।

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